Tuesday, 6 September 2011
"जस्वात" नज़्म है, जो बननेँ से पहले बिगड़ जाती है । शब्द है, जो बननेँ से पहले बिखर जाते है । अब परेशां मन मै अपना, आपको बताऊँ कैसे । ये हाल-ऐ-दिल मै अपना, आपको सुनाऊँ कैसे । अश्को मेँ गम-ए-ईश्क, हमनेँ डुबो दिया । लफ्ज़ो मेँ हाल-ए- दिल अपना पिरो दिया । पर मन मेँ पड़े जस्वातो को, सुनाऊँ कैसे । दिल मेँ लगे जख्मो के निशां, बताऊँ कैसे । एक तेरे लिये..... जमाने से क्या, अपनोँ से भी लड़ गया मै । जहर की हर बूँद भी, हँस हँसकर पी गया मै । पर वक्त के हौसले को, डगमगाऊँ कैसे । और पेशानी पर बनी लकीरो, को मिटाऊँ कैसे । वक्त ने हर मोड़ पर, धोखा हमेँ दे दिया । जिन्हेँ अपनोँ मेँ समझा, उन्हीँ ने परायो मेँ गिन लिया । अब अपनेँ और परायो मे, फर्क लगाऊँ कैसे । और हाल-ए-दिल तुम बिन, औरो को सुनाऊँ कैसे ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment